Tuesday, December 9, 2008

ज्ञान वरण, दर्शन अनावरण, वेदनीय कर्म को उत्पन्न करने वाले कारणों की चर्चा

Date of Swadhyaya: Sunday 7th Dec 2008
Attendees:Ridhi, Sonal, Dhyanesh, Vishal ,Pradeep, Ashokaji, Ruchi, Kunal Daddy, Paragji(our teacher), Mahaveer
Chapter No: 6 page 136
Sutra No:7,8,9
Summary:
यह पेज मैं ज्ञान वरण, दर्शन अनावरण को उत्पन्न करने वाले कारणों की चर्चा की है
प्रत्यक्ष ज्ञान- अवधि , मन: परयः ज्ञान, केवल ज्ञान (और बहु श्रुत का ज्ञान इस काल मैं नही पाए जाते)
परोक्ष ज्ञान- मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान (ही इस काल पाया जाता है)
ज्ञान वरन के भेद - ५ है मति, श्रुति, अवधि ,मन: पर्याय, केवल ज्ञान
ज्ञानावरण - ज्ञान में आवरण करना
मतिज्ञान - मन + इन्द्रिय के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है
श्रुत्ज्ञान - मतिज्ञान से जाने गये अर्थ के सम्बन्ध से अन्य (other) को जानना या उसी वस्तु के सम्बन्ध में विशेष जानना विशेष. मतिज्ञान सामान्य है, श्रुतज्ञान विशेष है मति ज्ञान के 5 भद है
उद्धरण- जेसे पानी का ग्लास कहते है दिमाग मैं एक आकृति बन जाती है और फिर नदी, सागर, और कई चीज़ उसी सम्बन्ध मैं ध्यान मै आ जाती है वह श्रुत ज्ञान का विषय है
अवग्रह - कुछ जानना
इहा- अधिक जानने की इच्छा होना
अवाय- निर्णय कर लेना
धारणा - उस चीज़ को नही भूलना
मतिज्ञान की पराधीन प्रवृति:मतिज्ञान की पराधीनता कैसे है ?
• कोई भी जिव को मतिज्ञान ५ इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है / जानता है. आत्मा ज्ञान से जानता है परन्तु द्रव्य इन्द्रिय और मन का सम्बन्ध होने पर ही वो जानता है.
• ज्ञान का क्षयोपशम वही रहेता है परन्तु द्रव्य इन्दिर्य तथा मन के परमाणु अन्यथा परिणमित हुऐ हो तो जान नही सकता अथवा थोड़ा जानता है, क्योंकि द्रव्य इन्द्रिय तथा मनरूप परमाणुओ के परिणमन को और मतिज्ञान को निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिए उनके परिणमन के अनुसार ज्ञान का परिणमन होता है.
•ज्ञान को और बाह्य द्रव्यों को भी निमित्त - नैमितिक सम्बन्ध है - लाल काच लगा देने से वास्तु लाल दिखती है अलग - अलग बाह्य पदार्थ से ज्ञान कम - ज्यादा होता है
• मतिज्ञान ज्ञान द्वारा जो जानना होता है वह अस्पष्ट जानना होता है, संशय रहित नही होता

इन्द्रिय की मर्यादा:
• इन्द्रिय द्वारा जितने क्षेत्र का विषय हो उसमे वर्त्तमान सम्बन्धी स्थूल पुदगल जान सकते है , उससे ज्यादा नही जान सकते
• अलग अलग इन्द्रिय द्वारा अलग अलग काल में किसी स्कंध के स्पर्शदिक का जानना होता है, एक साथ नही जान सकते
• एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का कम नही कर सकती, अगर आँखे अच्छी हो परन्तु सुन नही सकती सिर्फ़ देख सकती है

मन द्वारा:
त्रिकाल सम्बन्धी, दूर क्षेत्रवर्ती, समिपक्षेत्रवर्ती, रूपी - अरुपी द्रव्यों और पर्यायो को अस्पष्टरूप से जानता है. क्षेत्र - काल की मर्यादा नही है परन्तु अस्पष्ट जानता है
ज्ञान होने के लिए क्या जरुरी है?
1. मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम
2. चक्षु , अचक्षु दर्शनावरणीय क्षयोपशम
3. निद्रा क्षयोपशम
4. विर्यांतराय क्षयोपशम - ज्ञान धारण करने की शक्ति के लिए
श्रुत्ज्ञान = मतिज्ञान से जाने गये अर्थ के सम्बन्ध से अन्य (other) को जानना या उसी वस्तु के सम्बन्ध में विशेष जानना विशेष
उद्धरण- जेसे पानी का ग्लास कहते है दिमाग मैं एक आकृति बन जाती है और फिर नदी, सागर, और कई चीज़ उसी सम्बन्ध मैं ध्यान मै आ जाती है वह श्रुत ज्ञान का विषय है
किसी भी चीज़ को जाने वह मतिज्ञान है, और उसके आचे-बुरे का विचार, सुख-दुःख का विचार, वह श्रुतज्ञान है. जैसे स्पर्श करने से हम ठंडा गरम का आनुभव कर सकते है पर गरम चीज़ को स्पर्श करने से जो जलन होती है, उसका स्पर्श हितकारी नही है उससे दूर हटना है - वह श्रुतज्ञान है.

1) अक्षरात्मक श्रुत्ज्ञान= कर्नेंद्रिया से जो ज्ञान होता है वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है
2अन अक्षरात्मक श्रुतज्ञान= स्प्रश्सेंद्रिया/रसेंद्रिया/घ्रानेंद्रिया /चक्षु-इन्द्रिय/मन से जो विशेष ज्ञान होता है वह आनाक्श्रत्मक श्रुतज्ञान है.
- एकेंद्रीय से असनि जीव को अन अक्षरात्मक श्रुतज्ञान ही होता है.
- संगनी पंचैन्द्रिय जिव को दोनों होते है.
मति ज्ञान और श्रुत को ढकने वाले कर्म:
प्रदोष- कोई धर्म की बात करता हो तो उसकी बात नही सुनना और इर्ष्या करना
निन्न्हाव- स्वय शास्त्र का ज्ञान होने पर भी नही बतना/ छुपा लेना
मात्सर्य- सधर्मी से तव्त्ज्ञान के संधर्भ मैं इर्ष्या करना
अन्तराय- ज्ञान करने मैं बाधा डालना - किताब छुपना, नही देना और भी उपाय करना
असादना - सम्यक ज्ञान (सच्चे ज्ञान को उल्टा बताना हिंसा को ही धर्म कहना etc. ) को उल्टा कहना
उपघात - सम्यक ज्ञान तो झूठा कहना, जिन धर्म को झूठा कहना
वेदनीय कर्म
वेदनीय कर्म- जो इन्द्रिय सुख/दुःख रूप वेदन/अनुभव करवाता हे वोह हे वेदनीय कर्म
वेदनीय कर्म का उदय शरीर मे बाह्य सुख-दुःख के कारन को उत्पन्न करता हे।इन बाह्य कारन के तीन भेद हे
१> एक वोह जिन के निमित्त से शरीर की ही सुख-दुःख रूप अवस्था होती हे।
२> दुसरे शरीर की सुख-दुःख रूप अवस्था मे निमित्तभुत बाह्य कारन होते हे ।
३> तीसरे बाह्य वस्तुओ के ही कारन होते हे ।
वेदनीय कर्म के भेद- साता वेदनीय और असाता वेदनीय कर्म ये दो भेद हे
यहाँ विशेष ये जानो की रति और अरति कषाय के निमित्त से एक ही पदार्थ का संयोग कभी शाता वेदनीय या कभी अशाता वेदनीय कर्म के रूप मे होगा।
हमें सुख-दुःख केसे होता हे? वेदनीय कर्म की उसमे क्या भूमिका हे?: वेदनीय कर्म तो सिर्फ़ बाह्य निमित्त का संयोग करवाता हे। कारणों का मिलना वेदनीय के उदय से होने पर भी उसमे सुख-दुःख मानना मोह के उदय से होता हे।
कारन स्वयं सुख-दुःख उत्पन्न नही करता, वोह तो निमित्त मात्र हे, इस लिए उसे तो असमर्थ कारन ही कहेंगे।
-> मोह के उदय से जिव को बाह्य संयोग मिले या कभी न मिले तो उन बाह्य संयोगो का विचारो मे मन से आश्रय लेकर संकल्प करता रहता हे। इसी संकल्प से मोही जीव को सुख-दुःख होता हे।इस लिए मोह सुख-दुःख का मूल बलवान समर्थ कारन हे।
वेदनीय कर्म के बंधन के किया कारन है:
दुख- पीढा के परिणाम होना
शोअक - प्रीय जन के वियोग के कारन शुक होता है
ताप - किसे के झुटा इल्जाम लगने पैर जो क्रोध होता है उसे ताप कहते है
आक्रंदन - जोर जोर से रोना, पश्ताप करके रोना
वध-- किसे के प्राणों का घात करना
परिदेवन- बहुत दुख पूर्वक रोना और दूसरे को भी रूलाना
वेदनीय कर्म मैं भाव का बहुत मूल्य है - डॉक्टर की दवा से भी दुख होता है पैर उसका भाव स्वस्थ करने का होता है मार पीट, धन का हरण, धोका देना etc.
मुनिराज भी केश लोंच करते है, व्रत उपवास मैं उपने शरीर को दुख देते है पैर उनको व्रत उपवास, केश लोंच मैं खुशी होती है - एन्द्र्य विजय की, परिशय जय की, उसे तरहे की जेसे की बहुत वियोग के बाद किसे स्त्री का परी वापस आता है तो वह सुख की आशा से ही खुश होजाती है

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